चोटी की पकड़–81

बंगाल और सारे देश में आंदोलन की चर्चा है। सैकड़ों की प्रांत में फैले हुए। संगठन और व्याख्यान और काम करते चले। विदेशी का बहिष्कार जोरों पर। 


जगह-जगह 'युगांतर' की छिपकर बातें। सुरेंद्रनाथ और विपिनचंद्र के व्याख्यानों की तारीफ़। अखबार रंगे हुए। वंदेमातरम् का पहला समस्वर आकाश को चीरता हुआ। गीत; भिन्न कवियों-गायकों के भी संगठन, काम; दिन-रात काम; एक लगन।

प्रभाकर नहाने चला। सरोवर पर पक्के घाट हैं, लंबान की दोनों पंक्तियों के बीचों-बीच दूसरा घाट निकट है। एकांत रहता है। कोठी के पिछले छोर से दूसरी तरफवाला घाट निकट पड़ता है। 

प्रभाकर उसी में नहाता है। कोठी के सदर फाटक की बग़ल में सरोवर का राजघाट है। उसमें लोग आते-जाते हैं। दोनों घाटों के चारों ओर मौलसिरी के पेड़ लगे हैं और काफी पुराने हो चुके हैं। बड़ी घनी छाया है। वैसी ही ठंडक भी।

प्रभाकर ने डुबकियाँ लगाकर स्नान किया। भीगे अँगोछे से बदन मला। हाथ-पैर रगड़े। कुल्ले किए। कुछ तैरा, कुछ खेला। इधर-उधर के दृश्य देखे, पानी से भीगी पलकों से कैसे दिखते हैं।

 फिर निकलकर धोती बदली, धोती धोयी और निचोड़कर, गीली धोती और तौलिया लेकर चला।

तेईस


ख़जांची खोदाबख्श, मुन्ना और जटाशंकर के पेट में पानी था। तीनों ने बचत सोची। तीनों के हाथ में पकड़ है।

जटाशंकर से मिलने का वक्त आया। ख़ज़ांची कलकत्ता और राज धानी एक किए हुए हैं।

दुपहर का समय। किरणों की जवानी है। हरियाली का निखार। मुन्ना कोठी की बग़लवाले रास्ते से गुजर रही है। रुपया रखा है, दूर से निगरानी रखती है।

 कई दफे वह अँधेरी कोठरी देखती है। सदर की तरफवाले घाट की बग़ल से, किनारे-किनारे जो सड़क दूसरे घाट को जाती है, उसी पर टहलती हुई। 

प्रभाकर को दूसरे किनारे से कोठी की तरफ चलते, फिर कोठी के भीतर चले जाते देखा। पेड़ों की आड़ है और सिंहद्वार से दूर है। 

अंदर महलवाली दासी के लिए कोठी के दूसरे किनारे तक बढ़ जाना, अंदेशे के वक्त, स्वाभाविक है। 

उसकी प्रभाकर पर नज़र पड़ी कि तेजी आई। चौकन्नी हुई। अपने में पूछा। किसी को उधर से जाते नहीं देखा। वहाँ जीना है, नहीं मालूम। कभी गई नहीं। कोठी का उधरवाला हिस्सा नहीं दिखा। प्रभाकर को किनारे से भीतर जाते देखा।

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